भगत सिंह का राष्ट्र धर्म

“लिख रहा हूँ अंजाम जिसका कल आगाज आयेगा-मेरे लहू का हर एक-एक कतरा इंकलाब लाएगा” इस कथन को सुनते ही भारतवर्ष के करोड़ों युवाओं के नसों में दौड़ने वाला लहू गतिमान हो जाता है, उनकी नसें अपने शहीद नायक के सम्मान में फड़कने लगती है और जंगे आजादी का दृश्य सामने आ जाता है। 23 मार्च 1931 का दिन भारतीय इतिहास में सदैव स्वर्णिम अक्षरों में अंकित रहेगा क्योंकि यह वह दिन था जिस दिन भारत माँ के तीन वीर सपूतों को एक साथ फांसी पर चढ़ा दिया गया था। इतिहास आज उन वीर सपूतो के आदर्श वैचारिक मूल्य से धनी है। इन्हीं वीर सपूतों में भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को पंजाब के लायलपुर गांव में किशन सिंह के परिवार में हुआ था। भगत सिंह के पिता किशन सिंह और उनके भाई एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, भगत सिंह पर पिता के वैचारिक मूल्य का गहरा प्रभाव था, भगत सिंह ने 12 वर्ष की आयु में जलियांवाला बाग नरसंहार को देखा था जिसने अंग्रेजों के क्रूरतापूर्वक दमन को उन्हें बहुत अच्छी तरह से समझ लिया था। भगत सिंह के धर्म को लेकर अनेक वैचारिक विमर्श विचारकों द्वारा दिए जाते हैं, भगत के आध्यात्मिक जीवन के आदर्शों का मूल्यांकन तथा भगत सिंह के विचारों पर लेनिन के मार्क्सवाद का प्रभाव था या नहीं इस विषय से अधिक महत्वपूर्ण विषय भगत सिंह द्वारा युवाओं के राष्ट्र सेवा के लिए किये गए उद्बोधन को लेकर किया जाना चाहिए। भगत सिंह द्वारा राष्ट्र हितों को लेकर किए गए वैचारिक उद्घोषों को समझ जाना चाहिए। भगत सिंह ने अपनी विचारों और संघर्ष के माध्यम से मानवी जीवन के मूल्यों को लेकर कार्य किया जिसमें समानता, स्वतंत्रता, समता और एकता के लिए किया गया कार्य ही भगत सिंह का धर्म था, उन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई की सफलता के बाद स्वतंत्र एवं विखंडित भारत को लेकर चिंता व्यक्त की थी। भगत सिंह का जीवन मानवी सेवाओं को समर्पित था, उनका कहना था-“जो कुछ मानव जाति को प्रभावित करता है वह मुझे चिंतित करता है”। भगत सिंह ने हमेशा मानवी एकता के लिए कार्य किया उन्होंने अपनी प्रारंभिक रचना ‘विश्व प्रेम’ में समानता एवं विश्व बंधुत्व के महत्व पर जोर दिया, उन्होंने भूख से मुक्त समाज की कल्पना की जहां लोगों में आपस में प्रेम हो और समाज भय से मुक्त हो। भगत सिंह का विश्व बंधुत्व, विश्व में समानता एवं कल्याण के भाव को लेकर राष्ट्र के विकास का पथ प्रदर्शक था। भारत का दुर्भाग्य था कि ऐसे सर्व सहारा एवं सर्व राष्ट्र के कल्याण के विकासोन्मुख विचारों के प्रणेता का जीवन अल्पायु था। भगत सिंह के इन्हीं सर्व सहारा एवं सर्वोन्मुखी कल्याण के विचारों से भयभीत होकर अंग्रेजों ने 23 वर्ष की अल्पायु में भगत सिंह को फांसी की सजा दे दी गई। राष्ट्र के मुक्ति संघर्ष में भगत सिंह के वैचारिक मूल्य का राष्ट्र ऋणी है।

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भगत सिंह स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सर्व मानव जाति के कल्याण को लेकर चिंतित रहते थे, जेल में कारावास के दौरान उन्होंने अनेक रचनाएं लिखी, दुर्भाग्य से आज वे पांडुलिपियाँ नष्ट हो गई लेकिन कुछ रचनाएं जो पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थी वह हमारे सामने है। जेल में लिखी डायरी के पेज 190 नंबर पर भगत सिंह ने मानव धर्म को लेकर एक लेख लिखा – समाजवादी व्यवस्था में “प्रत्येक को उसकी योग्यता के अनुसार, प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार मिलना चाहिए”, ऐसे आदर्श विचार समाज के सामने प्रस्तुत किया। इस समाजवादी विचारधारा से प्रभावित होकर भगत सिंह ने अपनी संस्था का नाम 1928 में हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन से बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन कर दिया जो कि एक महत्वपूर्ण वैचारिक परिवर्तन का आह्वान था। भगत सिंह ने समाज में व्याप्त मानवी मूल्यों को आच्छादित करने वाले विचारों का जमकर विरोध किया। उस समय की तत्कालीन पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों में किरती एवं वीर अर्जुन में भगत सिंह के अनेक आलेख प्रकाशित हुए। उन्होंने भारत में व्याप्त अछूतों की समस्या के प्रति लोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहा, किरती में जून 1928 में प्रकाशित ‘अछूतों की समस्या’ नामक लेख से भगत सिंह के विचारों को समझा जा सकता है, भगत सिंह ने इस लेख में लिखा कि जब एक इंसान को पीने के लिए पानी देने से इनकार करते हैं, स्कूल में पढ़ने का अधिकार नहीं देते, भगवान के मंदिर में प्रवेश नहीं देते और एक इंसान के समान अधिकार नहीं देते और इसके आगे भगत सिंह ने अपने कथन को पूर्ण करते हुए कहा कि एक कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है परंतु एक इंसान के स्पर्श मात्र से हमारा धर्म भ्रष्ट हो जाता हैं तो यह कैसी विडंबना है। इस समस्या के उन्मूलन के लिए उन्होंने नवयुवकों और नौजवानों को संबोधित करते हुए कहा कि सबसे पहले यह तय करो कि हम सब इंसान हैं तथा हम सभी में इंसान है। भगत सिंह ने आगे कहा कि इंसानियत और हमारे कार्य मानवी चेतनाओं से सिंचित हो यही हमारा धर्म है। भगत सिंह ने भारतीय स्वतंत्रता की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा सांप्रदायिकता और अस्पृश्यता के विचारों को माना जिनका समन ही मानवी गुणों की रक्षा है, यही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन के बाद भारत में सांप्रदायिकता की भावना का तेजी से विकास हुआ, अंग्रेजों द्वारा सन 1905 में बंगाल के विभाजन के साथ जो सांप्रदायिकता और अलगाववाद का बीज बोया गया था यह उसके परिपक्वता का काल था। सन् 1926 में कोलकाता में एक भयानक दंगा हुआ संयुक्त प्रांत में 1923 और 1927 के बीच कुल 88 दंगे हुए जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय एकता को गहरा आघात पहुंचा, इससे आहत होकर किरती पत्रिका में भगत सिंह ने एक लेख लिखा “सांप्रदायिक समस्या का हल”। भगत सिंह ने इस आलेख में सांप्रदायिक दंगों के अनेक कारणों को बताया जिसमें उन्होंने आवाहन किया कि-धर्म किसी भी व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है उसे राजनीति में शामिल नहीं करना चाहिए, इसके लिए उन्होंने कहा कि यदि सांप्रदायिकता को समाप्त करना है तो हमें व्यक्ति को इंसान के रूप में देखना चाहिए, यही हमारा धर्म है। मानवी धर्म की सबसे बड़ी बाधा धार्मिक अंधविश्वास और कट्टरपन है, यह हमारे राष्ट्र की एकता और विकास में बाधक है, इससे हर हालत में हमें छुटकारा पाना चाहिए। इन्हीं आदर्श विचारों के पोषक भगत सिंह ने नौजवान सभा के माध्यम से युवाओं को लक्ष्य करके कहा कि हमेशा स्वतंत्रता पूर्वक गंभीरता से, शांति से और सब्र के साथ सोचो, मक्कार एवं बेईमान के हाथ में खेलने से बचे, हमें हमेशा संजीदगी और ईमानदारी के साथ सेवा, त्याग, बलिदान को अनुकरणीय वाक्य के रूप में अपनाना चाहिए, यही हमारा श्रेष्ठ धर्म है। भारतीय राष्ट्र में समानता, समता, बंधुत्व और सबके कल्याण और पोषण के इन्हीं आदर्श विचारों ने युवाओं के दिल में भगत सिंह की एक गहरी छाप छोड़ दी। आजादी की लड़ाई में शहीद-ए-आजम के नाम से विख्यात हुए, उनकी यह पंक्तियां हमेशा राष्ट्र प्रेमियों का आदर्श बनेगी – “दिल से ना निकलेगी मरकर भी वतन की उल्फ़त, मेरी मिट्टी से भी मेरे खुशबू-ए-वतन आएगी। शहीद दिवस पर भगत सिंह, सुखदेव थापर एवं शिवराम राजगुरु की पुण्यतिथि पर शत-शत नमन।

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