एक था गुलमोहर

आते- जाते सब बेसाख्ता ही रुक जाते थे,उस घने दरख्त की ठंडी -ठंडी छांव में !कितना खूबसूरत, दिलकश कदमों में, राहों में बिछा -बिछा- सा, शिवपुर बाईपास पर हाईवे के दूसरे
किनारे सुशोभित तंदुरुस्त गुलमोहर पर बहार जब आती,तो स्वर्ग की अप्सरा भी लजा जाती। भाई,क्या खूब गदरायी हुई डालियां थीं उसकी, बूटा -सा कद, हरी -हरी चिकनी पत्तियां, लाल- लाल फूलों के रस भरे गुच्छे, ज़रा सी हवा के मादक स्पर्श से ही छलक पड़ते,बरस पड़ते, मुसाफ़िरों के तपते माथे पर।
हम सब सवारी लेने के लिए इस गुलमोहर की शरण में इकट्ठे होते और तरह-तरह की मुद्राओं में सेल्फी लेते हुए इतराया करते। पास में ही टीन शेड में चाय की टपरी से पुरवा भर चाय और चटपटी, कुरकुरी पकौड़ियां लेकर ज़िंदगी के मज़े लेते। धीरे-धीरे मजबूत गुलमोहर के नीचे नन्हे- मुन्ने प्यारे-प्यारे दो पौधे और फूट पड़े! हमने उन्हें अपने बगीचे में रोपने का सोचा ही था, कि गर्मी की छुट्टियां आ गर्इं। उस गुलमोहर पर ढेर सारे तरह-तरह के पंछी बसेरा लेते और बहुत से पशु नीचे छांव में भरी
दुपहरिया ढलक जाते। और उसके बाद जब लौटे तो सब
वीरान हो चुका था। हमारी हरियाली उजड़ चुकी थी। बस थोड़ा सा सूखा तना बचा था। विकास, चौड़ीकरण, सुंदरीकरण के फैलाव ने निगल लिया हमारे गुलमोहर को, सपरिवार। रह गया बस ठूंठ, चिलचिलाती धूप में जलते सर, सब बेआसरा, लावारिस हो गए। पल भर में ही हमारा गुलमोहर ‘है’ से ‘था’ में तब्दील हो गया। पर्यावरण की सुरक्षा की बात करने वाले तथा कथित माननीय हरे-भरे पेड़ों के हत्यारे बन बैठे। उस तने के चारों ओर र्इंटों की एक दीवार बना दी गई है और अब वहां एकत्र होता है आस-पास का प्रदूषित कचरा, प्लास्टिक की बोतले, पॉलिथीन, डब्बे वगैरह-वगैरह। यह सिर्फ एक गुलमोहर के मरने की कहानी नहीं है दोस्तों! जाने कितने दरख्तों को ऊंची इमारतों की नींव में दफ़नाया जा चुका है, तालाब पाट कर सड़कें और मैदान बन चुके हैं। मत रौंदो, हरियाली को,पेड़ों को, जंगलों को, पहाड़ों को, नदियों और बगीचों को आओ! मिल कर लगाएं ढेर सारे पौधे इस पर्यावरण- दिवस पर, इस शेर को गुनगुनाते हुए कहा कि-
‘जिएं तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले ।
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।।’
डा.एस.बाला

