कृषक समूह ने किया भारत कला भवन का अवलोकन, कृषि अनुसंधान फार्म में लिया आधुनिक तकनीकों का प्रशिक्षण

वाराणसी, जनमुख न्यूज़। काशी तमिल संगमम् के चौथे संस्करण में तमिलनाडु से आए प्रतिनिधि मंडल ने बीएचयू स्थित भारत कला भवन का भ्रमण किया। जहां उन्होंने पारंपरिक तमिल नृत्य और खेलों के माध्यम से सांस्कृतिक आदान–प्रदान का आनंद लिया। प्रतिनिधियों ने हड़प्पा, गुप्ता और सिंधु सभ्यता की मूर्तिकला एवं मृदभांड के साथ-साथ चित्र वीथिका में मुगल शैली की पेंटिंग, निधि वीथिका में गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राएँ और मालवीय जी को मिला भारत रत्न देखा। मूर्ति वीथिका में स्थापित नटराज की विशिष्ट प्रतिमा तथा विभिन्न सभ्यताओं की कलाकृतियाँ आकर्षण का केंद्र रहीं।

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काशी तमिल संगमम् के अवसर पर तैयार की गई विशेष ‘गंगा–कावेरी समप्रवाह’ वीथिका काशी और तमिलनाडु के प्राचीन संबंधों को उजागर करती है। प्रतिनिधि मंडल का स्वागत उपनिदेशक डॉ. निशांत ने किया।इसके बाद तमिलनाडु से आए किसानों ने बीएचयू के कृषि अनुसंधान फार्म में कुदाल चलाकर गेहूँ की बुवाई का व्यावहारिक अनुभव प्राप्त किया। निरीक्षण के दौरान कृषि विज्ञान संस्थान के निदेशक प्रो. यू. पी. सिंह ने बताया कि वर्तमान कृषि क्षेत्र ‘मिट्टी का खराब स्वास्थ्य, जलवायु परिवर्तन, उत्पादन की अस्थिरता और रासायनिक खादों पर बढ़ती निर्भरता’ जैसी चार प्रमुख चुनौतियों का सामना कर रहा है।

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उन्होंने संरक्षण कृषि को इन समस्याओं का सबसे प्रभावी और टिकाऊ समाधान बताते हुए कहा कि इसकी तीन मुख्य विशेषताएँ—न्यूनतम जुताई, फसल अवशेष संरक्षण और कृषि विविधीकरण—मिट्टी के दीर्घकालिक स्वास्थ्य को मजबूत करती हैं। उन्होंने बताया कि बिना जुताई और अवशेष संरक्षण के साथ केवल 75% नाइट्रोजन का प्रयोग करने पर भी पैदावार 100% नाइट्रोजन के बराबर रहती है, जो सरकार और किसानों दोनों के लिए लाभकारी मॉडल है। उन्होंने उदाहरणों के माध्यम से समझाया कि फसल अवशेष हटाना मिट्टी के लिए उतना ही हानिकारक है, जितना किसी व्यक्ति को आवश्यकता से अधिक भोजन देना।20 वर्ष के अनुभव वाले किसान शशिकांत राय ने प्रिसिजन फार्मिंग, ड्रोन-आधारित बुवाई और शून्य जुताई तकनीक के लाभ साझा किए। कृषि इंजीनियरिंग विशेषज्ञ श्रीनिवासन डी. जे. ने बताया कि ड्रोन का उपयोग बुवाई, स्प्रेइंग और फसल स्वास्थ्य निगरानी में तेजी से बढ़ रहा है, जिससे देरी से बुवाई की समस्या का समाधान संभव है। प्रिसिजन फार्मिंग के ‘4आर सिद्धांत’—सही मात्रा, सही समय, सही स्थान और सही प्रकार—पर आधारित खेती को लागत घटाने और उत्पादन बढ़ाने के लिए उपयुक्त बताया गया। उन्होंने बताया कि शून्य जुताई प्रणाली से गेहूँ की उत्पादकता प्रति हेक्टेयर 7–8 टन तक पहुँच रही है तथा द्रोणाचार्य उड़ान एल एल पी ग्रामीण युवाओं को ड्रोन पायलट प्रशिक्षण देकर नए रोजगार अवसर उपलब्ध करा रही है।समूह ओमकार नाथ ठाकुर सभागार में आयोजित संगोष्ठी में भी शामिल हुआ।

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संगोष्ठी में शस्य विज्ञान विभाग के प्रो. निखिल कुमार सिंह ने धान, गेहूं, सब्जियों और अन्य फसलों की वैज्ञानिक पद्धतियों तथा क्षेत्रीय अनुकूलन के महत्व पर विस्तार से जानकारी दी। उन्होंने बताया कि धान की बुवाई बारिश शुरू होने से ठीक पहले करने से सिंचाई और श्रम लागत कम होती है। विभिन्न प्रकार की मिट्टी—काली, बलुई और दोमट—के अनुसार कृषि मशीनरी में संशोधन की आवश्यकता भी बताई। जैविक खेती मॉडल पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि बिना जुताई की जाने वाली जैविक खेती में वर्मी-कम्पोस्ट, वर्मीवॉश और गोबर खाद जैसे संसाधनों का उपयोग किया जाता है, जिससे बाजार में उत्पादों को प्रीमियम मूल्य मिलता है।फार्म में वॉटर-मीटर आधारित नियंत्रित प्लॉट्स स्थापित किए गए हैं, जिनके माध्यम से फसलों को आवश्यक न्यूनतम जल की मात्रा दर्ज की जाती है। बदलती जलवायु परिस्थितियों में यह मॉडल अत्यंत उपयोगी है। प्रो. सिंह ने कहा कि जैसे किसी व्यक्ति को उसकी जरूरत से अधिक भोजन देना व्यर्थ है, वैसे ही फसलों को आवश्यकता से अधिक पानी देना संसाधनों की बर्बादी है। उन्होंने बताया कि विभिन्न फसलों—आलू, सरसों, गेहूँ—के लिए अलग-अलग नियंत्रित प्लॉट्स विकसित किए गए हैं, ताकि छात्रों द्वारा एकत्रित वैज्ञानिक डेटा सीधे किसानों तक पहुँच सके। विशेष ब्लॉक में खरपतवारनाशी और कीटनाशकों के प्रभाव का परीक्षण भी किया जा रहा है, जबकि डीबीडब्लू-187 फसल ब्लॉक में तापमान, मिट्टी की नमी, वाष्पीकरण, पवन वेग और सूर्यप्रकाश अवधि जैसे कृषि-जलवायु आंकड़े संग्रहित किए जा रहे हैं।

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भारतीय कृषि की ऐतिहासिक प्रगति का उल्लेख करते हुए प्रो. सिंह ने बताया कि स्वतंत्रता के समय 50 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पादन आज 330 मिलियन टन तक पहुँच गया है, जबकि कृषि योग्य भूमि में कमी आई है। यह उपलब्धि किसानों, वैज्ञानिकों और कृषि कर्मियों के सामूहिक प्रयासों का परिणाम है। किसानों की आत्महत्या संबंधी प्रश्न पर उन्होंने कहा कि यह विषय सामाजिक विज्ञान और ग्रामीण विकास विशेषज्ञों की सक्रिय भूमिका की मांग करता है तथा किसान समुदाय में एकजुटता और सहयोग बढ़ाने की आवश्यकता है।

उन्होंने एफपीओ मॉडल को मजबूत करने और कृषि विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ाने की जरूरत पर भी बल दिया। उन्होंने कहा कि कृषि देश की अर्थव्यवस्था और अस्तित्व की नींव है और वैज्ञानिक अनुसंधान तथा किसान-केंद्रित नीतियों के माध्यम से भारत आगामी वर्षों में नई ऊँचाइयाँ प्राप्त करेगा।

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